4. छतरपुर

 

17 फरवरी 1995

होटल राहिल’, खजुराहो (रात 08:30 बजे)

 

            इस वक्त खजुराहो में मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के होटल राहिल के डोरमिटरी के एक गद्देदार बेड पर बैठकर यह लिख रहा हूँ।

            पिछली बार लिखना बन्द कर जब मैं छतरपुर के लिए रवाना हुआ था, तब मेरी हालत अच्छी नहीं थी। एक तो नौगाँव में खाने लायक कुछ नजर नहीं आया, सो नाश्ता नहीं किया; दूसरे आज हवा मेरे विपरीत थी, और तीसरे आज सिर्फ चढ़ाव-ही-चढ़ाव नजर आ रहे थे। कई बार पैदल चलना पड़ा। आस-पास का इलाका अब पठारी था और वनस्पति भी जंगली थी। 

            पौने एक बजते-बजते छतरपुर पहुँचा। झाँसी के बाद यह पहला शहर था। अच्छा लगा। लेकिन मेन रोड पर सिर्फ हार्डवेयर की दूकानें और गैरेज नजर आ रहे थे। होटल था ही नहीं। मुझे गुस्सा आया- लगा, यहाँ ठहरने वाले सैलानी स्पेयर पार्ट्स खाकर गुजारा करते हैं क्या! मैं बस स्टैंड या बाजार की तरफ नहीं मुड़ा, क्योंकि मैं हाई-वे या अपने गन्तव्य स्थल का रास्ता नहीं छोड़ना चाहता था। ऐसे सफर में थोड़े-से समय की बर्बादी से भी हानि हो सकती थी। धीरे-धीरे मार्केट खत्म हुआ और सड़क वीरान होने लगी- पर होटल नजर नहीं ही आया। पूछने पर पता चला- आगे है।

आगे साईनबोर्ड पर खजुराहो लिखा देखकर बायें मुड़ा। किलोमीटर भर चलने के बाद राजा छत्रसाल की प्रतिमा के पास जाकर होटल नजर आया। खाना खाया, वाटर बोतल में पानी भरा। फिर दो बजते-बजते आगे रवाना हो गया। मैं शहर से बाहर कहीं आराम करना चाहता था। आधे घण्टे बाद सड़क के किनारे एक पेड़ से साइकिल को टिकाकर ग्राउण्ड शीट बिछाकर मैं लेट गया। दो-चार मिनटों के लिए आँख लग भी गयी। मगर मेरा सोने का इरादा नहीं था। तीन बजे वहाँ से चला।

अब जाकर घुटनों ने थोड़ा साथ दिया- पता नहीं क्यों। सड़क भी साथ दे रही थी। साइकिल की स्पीड ठीक ही थी। छतरपुर से बमीठा कोई पैंतीस किलोमीटर था और वहाँ से लगभग ग्यारह किलोमीटर था खजुराहो। सात से आठ के बीच खजुराहो पहुँचा जा सकता था। लेकिन बमीठा से खजुराहो के लिए सीधा रास्ता है- ऐसा मेरे नक्शे में नहीं था। (मैंने जिस सड़क मानचित्र से नक्शा बनाया था, वह पुराना रहा होगा।) मेरे नक्शे के हिसाब से बमीठा से घुरा या पन्ना जाकर खजुराहो जाना था। मगर मैं जानता था कि यह गलत है। बमीठा के आस-पास कहीं से खजुराहो के लिए सीधा रास्ता जरुर होगा- मुझे उम्मीद थी। बमीठा से आठ किलोमीटर पहले चाय पीते समय एक सज्जन ने सब विस्तार से बताया और खजुराहो के पीडब्ल्यूडी के सर्किट हाऊस में रुकने की सलाह दी। (खजुराहो के होटल महँगे हैं, अपनी सवारी हो, तो छतरपुर में ठहरना बेहतर विकल्प है ।)

            चाय पीकर जो वहाँ से जो चला, तो कहाँ घुटने का दर्द और कहाँ रास्ते का चढ़ाव! पता नहीं क्या हो गया- साइकिल मजे से चलने लगी। जैसे लम्बी रेस के अन्तिम चरण में धावक अपनी गति बढ़ा देते हैं- वैसी ही मेरी स्थिति थी।

            मऊरानीपुर के काफी पहले से ही गाँव के अधेड़ एवं बुजुर्ग किसान ‘‘जै सियाराम’’ या ‘‘राम-राम’’ कहने लगे थे। मैं भी जवाब में ‘‘जै राम जी की’’ कहता था। यहाँ अभिवादन परिचय का मोहताज नहीं था। मगर यहाँ छतरपुर के बाद मामला दूसरा था। बच्चे ‘‘हलो-हलो’’, ‘‘बाय-बाय’’ या ‘‘टा-टा’’ बोल रहे थे। मैं जिस तरह हाफ पैण्ट और टी शर्ट पहन कर सामान का थैले साइकिल के कैरियर और हैण्डल पर रखकर, पानी का बोतल लटकाकर यात्रा कर रहा था- इससे बच्चे सन्देह में पड़ जाते थे। वे सोचते होंगे- यह लगता तो अपने यहाँ का है, पर साइकिल में क्यों सफर कर रहा है! मानो, साइकिल पर लम्बी यात्रा करने का हक सिर्फ ‘विदेशियों’ को ही प्राप्त हो! गनीमत थी कि मैंने (वायु सेना वाला) काला चश्मा नहीं लगा रखा था।

एक जगह बच्चे “गोरा-गोरा” पुकार रहे थे। मैंने साइकिल रोककर एक बड़े बच्चे को डाँटा, “तुम्हें गोरा नजर आते हैं हम?” वह अकचका गया। फिर बोला, ‘‘कहाँ के हो?’’

            एक जगह सड़क पर फ्री-हैण्ड एक्सरसाईज कर रहा था, तो एक बूढ़ा हँस पड़ा। मुझे लगा, बताना जरुरी है। मैंने कहा कि मैं तीन दिनों से साइकिल पर हूँ, तो वह बोला, मैं तो अँग्रेज समझ कर बात नहीं कर रहा था।

            जब मैं बमीठा पहुँचा, तो सूरज डूब चुका था और गर्मियों में सूरज डूबने के बाद जो एक चमकदार और साफ रोशनी फैल जाती है- वही रोशनी बमीठा बाजार में फैली हुई थी। वह कस्बा मुझे बड़ा शान्त और सहज लगा। कोई धूल नहीं, कोई भाग-दौड़ नहीं; न गैरेज, न ज्यादा चमक-दमक। मुझे अपने गाँव- बरहरवा की याद आ गयी वहाँ का माहौल देखकर (ध्यान रहे- बारह साल पहले का बरहरवा)। वर्ना, मऊरानीपुर व नौगाँव की धूल और छतरपुर के गैरेजों ने मेरा जायका बिगाड़ दिया था। मैं यहीं रुकना चाहता था, पर पता चला, यहाँ कोई लॉज या धर्मशाला नहीं है।

चाय पीकर छः बजकर पचीस मिनट पर मैं बाँईं तरफ वाली सड़क पर मुड़ा, जहाँ लिखा था- खजुराहो 11 किलोमीटर। सिर्फ ग्यारह किलोमीटर! मेरी लम्बी दौड़ का अन्तिम चरण। हालाँकि अन्धेरा बढ़ रहा था, पर बिना टॉर्च ठीक किये (टॉर्च में आखिरी सेल उल्टा रख रखा था) मैं चल पड़ा।

            अन्तिम ग्यारह किलोमीटर। सीधी सपाट समतल सड़क। दोनों तरफ पेड़। पेड़ के तनों पर चूने की सफेद चौड़ी पट्टी। गहराता अन्धेरा। घुटने का दर्द गायब। साइकिल की चाल हल्की। बस, ‘स्प्रिण्ट’ की तरह मैं दौड़ रहा था। दो-तीन किलोमीटर बाद सड़क  चिकनी थी- स्पीड और बढ़ गयी। शायद इसे ही कहते हैं, हवा से बातें करना!

            चेकपोस्ट पर मैंने सर्किट हाऊस के बारे में पूछा- वह मन्दिर कॉम्प्लेक्स के आगे था। वहाँ पता चला, एसडीएम के रेजीडेन्स से अनुमति लेकर आना पड़ेगा। वहीं के एक सज्जन ने इस होटल ‘राहिल’ का पता दिया। यहाँ ठीक ही था।