9. ओरछा-2

ग्वालियर

22 फरवरी’ 95

 

      ओरछा के श्रीराम धर्मशला में सुबह नीन्द खुलते ही विचार आया, क्यों न नदी के किनारे जाकर सूर्योदय का दो-एक चित्र खींचा जाय। वैसे, यहाँ का सूर्यास्त सुन्दर होता होगा। क्योंकि मन्दिर नदी के पश्चिमी किनारे पर हैं- सूर्य मन्दिरों के पीछे डूबता होगा। तब नदी, सूर्य तथा  मन्दिर मिलकर सुन्दर दृश्य उपस्थित करते होंगे।

      इन दिनों ओरछा में ‘राधेकृष्ण यज्ञ’ चल रहा था। इस यज्ञ के कारण श्रद्धालुओं की भीड़ अच्छी-खासी थी। रास्तों पर अक्सर ही “राधे-राधे” का जयघोष सुनाई पड़ जाता था।

      जब मैं नदी के किनारे गया, तब सूर्य उगने में देर थी, मगर उजाला फैल चुका था। नदी के तरफ जत्थे के जत्थे लोग चले जा रहे थे- सम्भवतः नित्यक्रिया से निबटने। जत्थों में बच्चे-बूढ़े-महिलायें सभी थीं।

      तस्वीर खींचकर मैं धर्मशाला में लौटा। नहा-धोकर, नाश्ता करके फिर मैं घूमने निकला।

      पहले महल की ओर गया। ‘जहाँगीर का महल’ अभी बन्द था- दस बजे खुलने वाला था। अभी साढ़े आठ ही बज रहे थे। मैं पीछे ‘दाऊजी की कोठी’ के खण्डहरों की ओर चला गया। खण्डहरों के प्रति बचपन से ही मेरे मन में आकर्षण रहा है। वहाँ कई तस्वीरें उतारीं मैंने। वहाँ से मन्दिर, नदी, राम मन्दिर, जहाँगीर का महल- सब दीख रहे थे- सबका एक-एक फोटो लिया। खण्डहर बड़े हिस्से में फैला हुआ था।

      खण्डहरों से निकलकर मैं यज्ञ-मण्डप होते हुए नदी के किनारे वाले मन्दिरों के तरफ गया। ये मन्दिर दूर से अच्छे लग रहे थे- और जब नदी पर इनका प्रतिबिम्ब पड़ता था, तो और भी अच्छे लगते थे; मगर पास जाने पर पता चला, सबकी बनावट एक-जैसी है और पास से देखने लायक कुछ खास नहीं है। ऊपर से, अभी ये मन्दिर तरह-तरह की जटा-जूटधारी साधू-सन्यासियों के निवास बने हुए थे। वातावरण में गाँजे की महक फैली हुई थी।

      गाँजे की महक पर याद आयी कि धर्मशाला का व्यवस्थापक भी रात अपने दोस्तों के साथ चिलम में दम लगा रहा था। गनीमत थी कि मैं अगरबत्ती ले आया था। सुबह-सुबह जब मैं धर्मशाला से बाहर आ रहा था, तब भी देखा- चिलम का दौर शुरु हो गया था।

      वहाँ से लौटकर ओरछा के प्रसिद्ध राम-सीता मन्दिर में आया। यहाँ सीता और राम की प्रतिमा स्थापित है- ओरछा की रानी द्वारा स्थापित। इसके पीछे एक किंवदन्ती है। (ठीक से याद न होने के कारण अभी मैं उस कहानी का जिक्र नहीं कर रहा हूँ।)

      यह एक विशाल मन्दिर है- मन्दिर क्या, यह एक महल है। कल्पना कर के देखिये कि इसका आधार ही जमीन से कोई बीस फीट ऊँचा होगा! चार-पाँच मंजिलों तक बरामदे, झरोखे, इत्यादि बने हैं। इसके बाद शुरु होते हैं शिखर। शिखरों में भी सीढ़ियाँ बनी हैं। अन्तिम सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते मैं डरने लगा था और बिलकुल आखिरी सात-आठ सीढ़ियाँ मैं नहीं ही चढ़ा। वैसे, ये आखिरी सात-आठ सीढ़ियाँ पत्थर की ‘स्लेटें’ थीं, जिन्हें शिखर की दीवार पर चुन दिया गया था- इनकी मजबूती पर सन्देह होना स्वाभाविक था। वहाँ दो-एक फोटो खींचकर मैं नीचे उतर आया। मैं वाकई काफी ऊँचाई पर था।

      समय दस से ऊपर हो रहा था। मुझे दतिया भी पहुँचना था। मैं धर्मशाला लौट आया। अभी हालाँकि जहाँगीर महल जाया जा सकता था, पर और देर करना उचित न जानकर मैं धर्मशाला में अगली यात्रा के लिए तैयार होने लगा। साढ़े ग्यारह बजते-बजते मैं सफर के लिए तैयार था।

      पिछली यात्रा में, यानि कल मैंने ध्यान दिया था कि दो-एक बार मेरा कण्ठ सूखा था और हाथ काले पड़ रहे थे- यानि गर्मी थी। आज मौसम ठीक था।

      झाँसी में बिना रुके मैं ग्वालियर रोड पर बढ़ गया। आगे एक फेरीवाले से कुछ अमरूद और एक पपीता लिया, जिन्हें कुछ और आगे जाकर मैंने खाया।

      मेरा अगला पड़ाव दतिया था, जहाँ मुझे वहाँ का प्रसिद्ध महल देखना था और जो मेरा अगला तथा इस सफर का अन्तिम रात्रि-पड़ाव भी था।