3. मऊरानीपुर 

 

 

बीते कल साढ़े बारह बजे ही भूख लग गयी थी, पर आज (16/2) भूख लगी एक बजे। मऊरानीपुर अभी भी पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर था। आपात्कालीन भोजन के रुप में चिड़वा साथ था। साइकिल एक ओर रखकर एक पेड़ के नीचे बैठकर मैंने वही खाया। पास ही हैण्ड पम्प था। फिर जूते उतारकर पेड़ की छाँव में मैं लेट गया। अब तक सिर्फ चाय पीते हुए ही आ रहा था- बीच-बीच में एस एन सिंह का दिया हुआ ‘अनरसा’ खा रहा था। एक कस्बे में एक बुजुर्ग ने चाय के पैसे भी नहीं देने दिये थे।

पौने दो बजे वहाँ से चला। साढ़े तीन बजे जब मऊरानीपुर पहुँचा, तब एक बड़ी भूल का अहसास हुआ। मैंने अपने नक्शे में मऊरानीपुर से नवगाँव की दूरी चौबीस (24) किलोमीटर दिखा रखी थी और आज अन्धेरा घिरने से पहले वहाँ पहुँचने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन मऊरानीपुर में साईनबोर्ड बता रहे थे कि नवगाँव वहाँ से बयालीस (42) किलोमीटर दूर था। गलती तो हो चुकी थी। एक चाय दूकान पर मैंने नक्शे को ठीक किया। आज जो रफ्तार थी, उसके हिसाब से अब नवगाँव पहुँचने में कम-से-कम रात के आठ बजेंगे। कुल दूरी भी सौ किलोमीटर से ज्यादा हो जायेगी। एक दिन में सौ किमी से ज्यादा साइकिल चलाना उचित नहीं था। न ही रात में सफर करना उचित था। दूसरी ओर, इतना दिन रहते मऊरानीपुर में रूकना भी उचित नहीं था।

अन्त में मैंने जोखिम लिया और पौने चार बजे वहाँ से आगे रवाना हो गया- सोचा जहाँ अन्धेरा होगा, वहीं रात गुजार लूँगा। तैयारी करीब-करीब पूरी थी।

प्रसंगवश, यह बताता चलूँ कि “मृगनयनी” तथा इस तरह के अनेक ऐतिहासिक उपन्यासों के रचयिता वृन्दावनवन लाल वर्मा जी मऊरानीपुर के ही हैं- उनके कई उपन्यास मैंने पढ़े हैं और मुझे पसन्द भी आये थे।

हाँ, एक बात; मऊरानीपुर से पन्द्रह किमी दूर जहाँ मैंने खाना खाया था, वहाँ से रास्ता समतल था। कुछ खाने की भी एनर्जी थी। वहाँ से साइकिल अच्छी चली थी। यहाँ मऊरानीपुर से निकलते ही चढ़ाव और ढलान वाली सड़क फिर शुरु हो गयी। अब तक मुझे चढ़ाव से डर लगने लगा था। कई बार चढ़ाव पर पैदल चलना पड़ा। यह पैरों के लिए अच्छा भी था। लगातार साइकिल यात्रा के दौरान बीच-बीच में शायद पैदल भी चलना चाहिए। कल ऐसा न करके मैंने गलती की थी। एक स्थानीय साइकिल-सवार ने भी यही सलाह दी।

अब रास्ते में पड़ने वाले छोटे-मोटे कस्बों एवं बाजारों में लोग पूछने लगे थे- कहाँ से आ रहे हो, कहाँ तक जाना है- वगैरह।

रफ्तार कम होने के बावजूद आठ बजे रात तक नवगाँव पहुँचने की उम्मीद थी।

एक डैम के पास एक अजीबो-गरीब बनावट वाली पुल को पार करने के बाद पूरी तरह से मध्य प्रदेश राज्य की शुरुआत हुई। वहीं शाम भी ढली। कुछेक किमी चलने के बाद मैंने ट्रैक-सूट पहना। अब तक हाफ पैण्ट और टी शर्ट में ही काम चल रहा था। हाफ पैण्ट पहनने का आइडिया मुझे बरूआसागर के बाद आया- क्योंकि वहीं से मैंने दो-तीन घण्टों बाद-बाद घुटनों पर आयोडेक्स की मालिश शुरु की थी। हाफ पैण्ट में आयोडेक्स लगाना आसान था और साइकिल चलाते वक्त भी घुटनों पर मालिश की जा सकती थी।

मेरे दाहिने तरफ सूरज डूब रहा था और मैं चाहकर भी स्पीड बढ़ा नहीं पा रहा था। यूँ तो पूनम की रात थी लेकिन सूरज के डूबने और चाँद के उगने के बीच करीब आधा घण्टा अन्धेरा रहेगा- ऐसा मेरा अनुमान था।

धीरे-धीरे अन्धेरा भी ढला। नवगाँव बीस किमी दूर था। रात घिरने के बाद एक चेक-पोस्ट आया। वहीं एक पैकेट बिस्कुट खाया, चाय पीया। मऊरानीपुर में अण्डा वगैरह न खाकर मैंने गलती की थी।

चाय पीकर थोड़ा जोश आया। अब तक घना अन्धकार छा चुका था। दो-चार झटके खाने के बाद अपना पेन टॉर्च निकाला। पहले मैं बड़ा टॉर्च लेकर चलने वाला था, लेकिन बाद में यह सोचकर छोड़ दिया कि रात में सफर करना ही नहीं है। पेन टॉर्च का कोई खास फायदा नहीं था।

एक बाजार में मैंने पूछा कि कोई धर्मशाला है क्या?- नहीं था। आगे चलते-चलते खेतों की रखवाली करते एक बाबा से पूछा- आपकी झोपड़ी में जगह मिलेगी? जगह तो थी, मगर कीड़ों की बात कहकर उन्होंने आगे ‘पुतरया’ गाँव जाने को कहा। वैसे, मेरे पास इन्सेक्टीसाइड-स्प्रे था, पर वे नहीं माने। फिर आगे चला। अब जाकर पूरब की क्षितिज पर पूनम का गोल चाँद उगा। थोड़ा चपटा और धुंधला था चाँद। जब तक वह ऊपर उठकर अपनी चाँदनी का आँचल फैलायेगा, तब तक मैं शायद नवगाँव ही पहुँच जाऊँ।

एक ढाबे के मालिक से बात किया। सामने सड़क के उस पार एक प्राइमरी स्कूल का भवन था- वहाँ तक चारपाई ले जाने की अनुमति मिल गयी। वहीं दाल-रोटी और खीर खाया। स्कूल में चारपाई ले जाकर, बिस्तर बिछाकर, साइकिल तथा बैग को चारपाई से लॉक करके, घुटनों पर आयोडेक्स लगाकर मैं सो गया। तब तक साढ़े आठ बज गये थे।

नीन्द खुली मेरी कोई डेढ़-दो बजे रात में। फिर ठीक से नीन्द नहीं आयी। शायद थकान की वजह से; या फिर, नीन्द पूरी हो जाने की वजह से। वैसे भी, सामने ढाबे में (या ढाबे में खड़े किसी ट्रक में) रात भर ऊँचे वॉल्यूम में गाने चलते रहे। कभी कौव्वाली, कभी ‘क्रान्तिवीर’ के डायलॉग, कभी कुछ और।

भोर में फिर नीन्द आयी। सुबह पौने सात बजे उठा। बड़े आलस के साथ तैयार हुआ। चारपाई पहुँचाई, चाय पी और धीरे-धीरे चल पड़ा। शरीर ठण्डा था, घुटनों में जरा भी आराम नहीं था, सो कुछ देर पैदल चलने के बाद ही साइकिल चलाना उचित था। नवगाँव वहाँ से दस-बारह किमी दूर था।

बड़ी सुस्ती के साथ मैं साइकिल चला रहा था। एक बड़े पेड़ के नीचे से गुजरते समय एकाएक अपने आस-पास मैंने भिनभिनाहट सुनी। मधुमक्खियाँ थीं! अब काहे की सुस्ती! मैंने तेजी से साइकिल भगाया। साथ ही, सर से कैप उतारकर उनपर फटकारता रहा। मधुमक्खियों ने कुछ दूर पीछा किया। मगर किसी को काटने का मौका नहीं मिला।

नवगाँव पहुँचकर जब टायरों में हवा डलवाया, तब ध्यान गया- टायरों में हवा कम थी। नवगाँव से बाहर आकर फिर एकबार हवा डलवाया, चाय पीया, आयोडेक्स मला और चल पड़ा। छतरपुर कोई बीस-पचीस किमी दूर था।

...और अभी जहाँ से लिख रहा हूँ, वहाँ से दस किमी बचा होगा। बारह बज चुके हैं, भूख भी लग रही है। इतना ही।