2. बरूआसगर 

 

छतरपुर (शहर से बाहर)

17 फरवरी 95 (दिन 11:00 बजे)

 

छतरपुर शहर अभी दस-बारह किलोमीटर दूर है। सड़क के किनारे एक छोटे-से झुरमुट में बैठकर यह लिख रहा हूँ। जंगल की निस्तब्धता को चिड़ियों की तरह-तरह की आवाजें और बीच-बीच में गुजरने वाले वाहन भंग कर रहे हैं।

हाँ, तो रात झाँसी के होटल में सोते समय शुरु में ठण्ड लग रही थी। रजाई मोटी थी। बाद में गर्मी लगने लगी। बैग से चादर निकाल कर ओढ़ा। दो-चार मच्छर भी थे। अन्त में पंखा चलाकर रजाई ओढ़ लिया। यह ठीक रहा।

जब नीन्द खुली, तब भोर के तीन-पच्चीस हो रहे थे। इतनी जल्दी नीन्द शायद इसलिए खुल कि रात जल्दी सोया था। इसके बाद ठीक से नीन्द नहीं आई। साढ़े पाँच बजे से तैयार होने लगा और साढ़े छह बजते-बजते मेरी साइकिल तैयार थी- यात्रा के अगले चरण के लिए। एक टेम्पो वाले की सहायता करने में बीस मिनट देर हुई।

घुटनों में दर्द महसूस हो रहा था। खासकर दाहिने घुटने में। ट्रैक-सूट के साथ अन्दर मैंने ‘इनर’ पहन लिया था- ठण्ड थी। मैं उस सड़क पर आगे बढ़ा, जो शिवपुरी जाती थी। क्योंकि रात मैंने दो लोगों से पूछा था और दोनों ने बताया था कि यही सड़क छतरपुर भी जाती है। लेकिन चलते वक्त मुझे लग रहा था कि मुझे तो पूरब और दक्षिण के बीच चलना चाहिए, जबकि यह सड़क बिल्कुल पश्चिम की ओर जा रही थी। अगले चौराहे पर एक सज्जन से पूछा, तो पता चला एकदम पीछे लौटना पड़ेगा। मेरा अन्दाज सही निकला। वापस लौटकर पिछले चौराहे से जो रास्ता चुना, उसकी दिशा ठीक पूरब और दक्षिण के बीच थी।

सोचा था, झाँसी शहर से बाहर आते ही चाय पीऊँगा और साइकिल में हवा भी डलवा लूँगा। वैसे, साकिल में हवा शायद रात में ही डलवा लेना चाहिए था। काफी भारी चल रही थी। शहर से बाहर चाय दूकान तो मिल गई, मगर साइकिल दूकान नहीं मिली।

सोचा, ओरछा में बाजार होगा- वहीं हवा डलवा लिया जायेगा। ऊँचे-नीचे पठारी रास्ते पर मैं चलता रहा। घुटनों का दर्द और टायरों की कम हवा सफर का मजा किरकिरा किये दे रही थी।

ग्यारह किलोमीटर के बाद पता चला, ओरछा यहाँ से आठ किलोमीटर है और उसका रास्ता अलग है। लाचार होकर मैं आगे ही बढ़ता रहा।

माईलस्टोन में कोई ‘बरूआसागर’ नजर आ रहा था- सोचा, वहीं नाश्ता भी कर लूँगा।

बीच रास्ते में एक छोटा-सा, पुराना पर आकर्षक मन्दिर नजर आया। पुरातत्त्व विभाग का बोर्ड भी लगा था- ‘जरायु मन्दिर’। सोचा, लौटते समय देखूँगा। अभी पचास मीटर ही आगे गया होऊँगा कि दाहिने घुटने का दर्द एकाएक बढ़ गया। तुरन्त वापस लौटा- मन्दिर में जाकर क्षमा माँगने के लिए। अन्दर जाकर देखा, तो गर्भगृह से प्रतिमा गायब थी। बाहर की मूर्तियों के भी सर गायब थे। मेरे ख्याल से, कुछ तस्कर लोग इन पुराने मन्दिरों की मूर्तियों का चेहरा निकाल कर बेचने का धन्धा करते होंगे।

खैर। मुश्किल से और बड़ी उम्मीद के साथ बरूआसागर पहुँचा, तो पाया, बस-स्टैण्ड तो काफी बड़ा और व्यस्त है, पर एक भी साइकिल दूकान नहीं है। एक बूढ़े बाबा गुमटी में अपने जैसा ही एक पम्प लिये बैठे थे। जैसे-तैसे करके थोड़ा हवा डाला। चैन भी कसवाना था, पर बाबा का कहना था कि वे एस.एल.आर. साइकिल का कुछ नहीं जानते। वहाँ गाजर का हलवा खाया, चाय पीया। ‘इनर’ और ट्रैक सूट का ‘अपर’ निकाल दिया- गर्मी पड़ने लगी थी। टी-शर्ट पहना। तब तक एक दूसरा साइकिल रिपेयर करने वाला आ गया था। उसने फिर अच्छे से हवा डाल दी और चैन कस दी।

आगे मध्य-प्रदेश और उत्तर प्रदेश के साईनबोर्ड मानो आँख-मिचौनी खेल रहे थे। अभी एम.पी. तो अभी यू.पी.। कभी-कभी याद ही नहीं रहता था कि मैं किस राज्य से गुजर रहा हूँ!

बेतवा नदी के पुल पर आकर थकान थोड़ी मिटी। सामने दोनों तरफ पहाड़ियाँ और जंगल। बाँई तरफ यौवन से भरपूर बेतवा नदी। साफ पानी- सम्भवतः ठण्डा भी। दाहिनी ओर वही नदी पत्थरों के बीच से गुजर रही थी। उसी ओर दूरी पर ओरछा के महल आदि दीख रहे थे। फिलहाल ओरछा जाने का इरादा मैंने छोड़ दिया था, क्योंकि मेरा मुख्य मकसद खजुराहो था।

बेतवा नदी के बाद जिन पहाड़ियों और जंगलों का सिलसिला शुरु हुआ, उससे मुझे अपने इलाके की राजमहल की पहाड़ियों की याद आ गयी। वही मिट्टी, वही वनस्पति, वही महक और उन्हीं चिड़ियों की आवाजें।

घुटने के दर्द के बावजूद इस प्राकृतिक दृश्य का उपभोग करते हुए ऊँचे-नीचे रास्ते पर मैं चलता रहा। कई बार चढ़ाव पर पैदल ही चलना पड़ा।

इस बार मेरी रफ्तार कम थी। पठारी रास्तों के चढ़ावों ने काफी परेशान किया। फिर भी, हरे-भरे सरसों और जौ के खेतों और नीली पहाड़ियों ने बोर नहीं होने दिया।